ओ३म्: “ईश्वर को जानने व मानने में ही मनुष्य जीवन की सार्थकता है”

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ओ३म्
“ईश्वर को जानने व मानने में ही मनुष्य जीवन की सार्थकता है”

मनुष्य को पता नहीं कि उसका इस संसार में जन्म क्यों हुआ है? उसको कोई इस बात का ज्ञान कराता भी नहीं है। मनुष्य जीवनभर संसार के कार्यों में उलझा रहता है, अतः अधिकांश मनुष्यों को तो कभी इस विषय में विचार करने का अवसर तक नही मिलता। यदि कोई इन विषयों पर विचार करना भी चाहे तो स्कूल के पाठ्यक्रम से लेकर हम जो साहित्य पढ़ते हैं, उसमें भी इस प्रश्न की अवहेलना ही दृष्टिगोचर होती है। क्या यह प्रश्न इतना महत्वहीन है कि इसकी चर्चा व उत्तर प्राप्त न किये जाये? हमें ऐसा लगता है कि सभी मनुष्यों का प्रथम कर्तव्य यही है कि जब किशोरावस्था व उसके बाद उन्हें विचार करने की शक्ति प्राप्त हो, तो उन्हें माता, पिता तथा स्कूल के आचार्यों द्वारा यह बताया जाना चाहिये कि मनुष्य किसे कहते हैं और उसका जन्म किस प्रयोजन को सिद्ध करने के लिये व किस सत्ता के द्वारा दिया जाता है। उसे यह भी ज्ञात होना चाहिये कि यह संसार कब व किसने बनाया है? इन प्रश्नों के उत्तर जानकर मनुष्य को अपने कर्तव्यों का निर्वाह करना चाहिये। अपने जीवन के उद्देश्य व लक्ष्य को पूरा करने के लिये सत्यज्ञान के अनुसार आचरण व व्यवहार करना चाहिये। इन्हीं प्रश्नों व इनके समाधानों पर हम इस लेख में विचार कर रहे हैं।

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मनुष्य एक चेतन प्राणी है। उसका शरीर, शरीरस्थ ज्ञान व कर्म इन्द्रियां आदि प्रकृति नाम की जड़ सत्ता से बनी हैं। यह शरीर केवल माता पिता द्वारा बनाया गया नहीं है। हमारे शरीर में जो वृद्धि व ह्रास देखा जाता है वह भी माता-पिता अथवा किसी अन्य प्रत्यक्ष सत्ता द्वारा नहीं होता है। यह सब एक अप्रत्यक्ष सत्ता ईश्वरीय नियमों के अनुसार होता है। माता-पिता तो बहुत साधारण ज्ञान रखते हैं जबकि हमारे शरीर में बहुत उच्च स्तर के ज्ञान का प्रयोग हुआ है जिसे आज के सबसे उच्च वैज्ञानकि भी जानते नहीं है। संसार के सभी वैज्ञानिक मिलकर भी प्रयत्न करें तो भी वह हमारी आंख, नाक, कान आदि इन्द्रियों को नहीं बना सकते, अतः शरीर बनाना तो उनके व किसी भी मनुष्य के वश की बात नहीं है। हमारी यह सृष्टि भी परमात्मा ने ही बनाई है। इसी लिये इसे अपौरुषेय सत्ता कहते हैं। सृष्टि और प्राणियों की उत्पत्ति तथा पालन विषयक शंकाओं का समाधान हमें अपनी विवेक बुद्धि सहित अपने प्राचीन शास्त्रों वेद, उपनिषद, दर्शन, प्रक्षेप रहित विशुद्ध मनुस्मृति एवं ऋषि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश आदि अनेक ग्रन्थों से होता है। उत्तर है कि इस संसार में ईश्वर के नाम से प्रसिद्ध एक चेतन सत्ता है जो सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान व सृष्टिकर्ता है। वही ईश्वर न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य और पवित्र भी है। उस ईश्वर में अनन्त गुण-कर्म-स्वभाव हंै जिसे मनुष्य अपनी सीमित बुद्धि व अल्प ज्ञान से नहीं जान सकता। उसका ज्ञान वेद आदि शास्त्रों का अध्ययन करने से कुछ कुछ होता है जिससे मनुष्य ईश्वर को जानकर और वेद व इतर शास्त्रों में बताये गये पंचमहायज्ञ आदि कर्तव्यों से परिचित होकर, उनके लाभ हानि को समझकर, उनका सेवन व आचरण कर सकता है। वेदों में ईश्वर का जो स्वरूप, गुण, कर्म व स्वभाव आदि बतायें गये हैं वह सब प्रकृति वा सृष्टि में प्रत्यक्ष घट रहे हैं। अतः उनके लिए प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती है। वह सब प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। गुणी द्रव्य में रहते हैं। गुणों का प्रत्यक्ष होने से ही गुणी का प्रत्यक्ष माना जाता है। अतः सृष्टि व प्राणी जगत की उत्पत्ति रूपी गुण व शक्ति जिस द्रव्य में निहित है वही परमात्मा सिद्ध होता है। इस सिद्धान्त तथा वेद प्रतिपादित ईश्वर के सत्यस्व्रूप व गुण-कर्म-स्वभाव को ही सब मनुष्यों को मानना चाहिये। ईश्वर के सत्यस्वरूप को जानकर व सब मनुष्यों द्वारा उसी का पालन करने से हमारा समाज व विश्व श्रेष्ठ व उत्तम विचारों व व्यवहारों वाला बनता है।

मनुष्य क्या है? इसके लिये हमें मनुष्य जन्म व जीवात्मा के विषय में भी जानना चाहिये। ऋषि दयानन्द ने अपने अपूर्व परिश्रम से इन सब रहस्यों का अपने जीवन में प्रत्यक्ष किया था और बाद में सत्य के अर्थों का प्रचार करना ही उन्होंने अपने जीवन का लक्ष्य बनाया था। जीवात्मा का वर्णन करते हुए ऋषि दयानन्द ने बताया है कि जीव वा आत्मा चेतन, अल्पज्ञ, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख, दुःख और ज्ञान गुणवाला तथा एक नित्य पदार्थ वा सत्ता है। यही हमारा व हमारी आत्मा का सत्य व यथार्थ परिचय है। हमारा यह आत्मा ज्ञान का ग्राहक व कर्मों का कर्ता होने से सत्यासत्य अथवा शुभाशुभ कर्मों को करने के कारण उनके सुख व दुःख रूपी बन्धनों में फंसता है जिस कारण इसका अपने कर्मों के अनुसार भिन्न भिन्न योनियों में जन्म हुआ करता है। जन्म का परिणाम कालान्तर में मृत्यु होती है और मृत्यु के समय तक जो कर्म बिना फल भोगे रह जाते हैं, उन्हें भोगने के लिये पुनर्जन्म होता है। सभी प्राणियों का आत्मा अनादि व नित्य है। यह हमेशा से है और हमेशा रहेगा। जीवात्मा का अभाव कभी नहीं होता। संसार का नियम है कि किसी भाव पदार्थ का अभाव वा नाश कभी नहीं होता। किसी भी पदार्थ का केवल स्वरूप परिवर्तन होता है जिसे हम नाश कह देते हैं परन्तु वह पदार्थ परिवर्तित भिन्न स्वरूप में सृष्टि में विद्यमान रहता है। अतः हमारी आत्मा मृत्यु के बाद व मृत्यु से पहले भी अपने गुणों सहित संसार में विद्यमान रहती है और कर्मों के अनुसार जन्म व मरण के चक्र में फंसती है।

सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान व न्यायकारी परमात्मा ने जीवात्माओं को जन्म व मरण के दुःखों से बचाने के लिये मुक्ति का विधान किया है जिसके लिये जीवात्माओं को वेदविहित सत्याचरण, वेदो का स्वाध्याय, पंचमहायज्ञ, परोपकार व दान आदि पुण्य कर्म करने सहित ईश्वर की उपासना द्वारा ईश्वर का साक्षात्कार करना होता है। इसमें सफलता प्राप्त कर मनुष्य की आत्मा को मोक्ष प्राप्त होता है। इस मोक्ष की प्राप्ति के लिये ही सृष्टि के आदि काल से विज्ञ महात्मा व ऋषि मुनि ईश्वर की उपासना करते हुए मोक्ष प्राप्ति के लिये प्रयत्नशील वा साधनारत रहे हैं। यही सभी जीवात्मा का परम व श्रेष्ठ उद्देश्य व लक्ष्य है। इसको प्राप्त करने पर मनुष्य के सभी दुःख, दारिद्रय आदि दूर होकर ईश्वर का सान्निध्य एवं परम सुख वा आनन्द की प्राप्ति होती है। सत्यार्थप्रकाश का नवम समुल्लास पढ़कर मोक्ष को विस्तार से जाना जाता सकता है।

मनुष्य को परमात्मा से बुद्धि मिली है जो आचार्यों व वेद आदि शास्त्रों के सहाय वा आश्रय से सत्य व असत्य का विवेचन करने में समर्थ होती है। इस बुद्धि से हमें अपने स्वरूप, क्षमताओं व जीवन के उद्देश्य के बारे में जानना चाहिये ओर इसके साथ ही सृष्टि व इसके स्रष्टा, पालनकर्ता को भी जानना चाहिये। हमे अनादि काल से ईश्वर के जीवात्माओं पर उपकारों का भी चिन्तन कर उन्हें जानना चाहिये और उसके लिये उसका धन्यवाद, आभार व कृतज्ञता व्यक्त करनी चाहिये। हमारा मनुष्य नाम तभी सार्थक होता है जब हम बुद्धि से सभी उत्तम विषयों का चिन्तन कर उन्हें जानकर अपने कर्तव्यों के प्रति सजग होकर उनका पालन करने में तत्पर होते हैं। ईश्वर की उपासना सहित पंचमहायज्ञ एवं श्रेष्ठ उत्तम कर्मों को करके हम सच्चे व श्रेष्ठ मनुष्य बनते हैं। इसी के लिये हमें प्रयत्न करने चाहिये। इसी से हमारा यह जीवन व परलोक सुधरता व उत्तम बनता है। हमारे जीवन का उद्देश्य व लक्ष्य, जो कि मोक्ष है, उसके पूरा होने में सहायता मिलती है। हम पापों व उनके परिणाम दुःखों से बचते हैं। यही हम सबके लिये करणीय है। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

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