ओ३म् : “विश्व समुदाय द्वारा वेदों की उपेक्षा दुर्भाग्यपूर्ण है”

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ओ३म्

“विश्व समुदाय द्वारा वेदों की उपेक्षा दुर्भाग्यपूर्ण है”

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वेद ईश्वर प्रदत्त सब सत्य विद्याओं का ज्ञान है जो सृष्टि की आदि में अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य तथा अंगिरा को प्राप्त हुआ था। इस सृष्टि को सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान तथा सच्चिदानन्दस्वरूप आदि लक्षणों वाले परमात्मा ने ही बनाया है। उसी परमात्मा ने सभी वनस्पतियांे व ओषधियों सहित मनुष्य आदि समस्त प्राणियों को भी उत्पन्न किया है। मनुष्यों के शरीर व उनके मन व बुद्धि आदि को भी परमात्मा ही बनाता है। अतः बुद्धि के विषय ज्ञान को भी परमात्मा ही प्रदान करता है। यदि सृष्टि के आरम्भ में परमात्मा वेदों का ज्ञान न देता तो संसार में ज्ञान का प्रकाश न होता। मनुष्यों में यह सामथ्र्य नहीं है कि वह परमात्मा से वेदों का ज्ञान प्राप्त किये बिना स्वयं किसी भाषा व ज्ञान का विस्तार कर सकें। ईश्वर न हो तो यह सृष्टि भी बन नहीं सकती थी और न ही इसमें मनुष्य आदि प्राणी जन्म ले सकते थे। अतः सभी मनुष्यों को इस सत्य रहस्य को समझना चाहिये और वेदों की उपेक्षा न कर वेदों का अध्ययन कर इसमें उपलब्ध ज्ञान को प्राप्त होकर इसका लाभ उठाना चाहिये।

महर्षि दयानन्द ने अपने समय में अपनी कुछ शंकाओं का उत्तर संसार के किसी मत, पन्थ व ग्रन्थ में न मिलने के कारण ही सत्य ज्ञान की खोज की थी। उन्हें यह ज्ञान चार वेदों एवं वैदिक साहित्य, जो ऋषियों द्वारा रचित है, उनमें प्राप्त हुआ था। आज भी वेद ही सब सत्य विद्याओं के ग्रन्थ होने के शीर्ष व उच्च आसन पर विराजमान हैं। वेदों का अध्ययन कर ही मनुष्य ईश्वर, आत्मा तथा प्रकृति सहित अपने कर्तव्य और अकर्तव्यों का बोध प्राप्त करता है। वह वेद ज्ञान को आचरण में लाकर ही दुःखों से मुक्त होकर आत्मा की उन्नति कर सुखों को प्राप्त होकर मृत्यु के बाद सब दुःखों व क्लेशों से रहित मोक्ष को प्राप्त कर सकता है। वेद प्रतिपादित ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना अर्थात् योगाभ्यास करते हुए जीवन जीनें से ही मनुष्य को ईश्वर का साक्षात्कार होकर धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष सिद्ध होते हैं। यही मनुष्य की आत्मा के प्राप्तव्य लक्ष्य हैं।

पांच हजार वर्षों से कुछ अधिक वर्ष पूर्व हुए महाभारत युद्ध के बाद देश देशान्तर में अव्यवस्था फैल गई थी जिसके कारण वेदों के सिद्धान्तों की सत्य शिक्षा व उनके प्रचार का प्रायः लोप हो गया है। जिस प्रकार सूर्य के अस्त होने पर अन्धकार होकर रात्रि हो जाती है इसी प्रकार वेदों की सत्य शिक्षाओं का लोप हो जाने के कारण सत्य ज्ञान का भी लोप होकर अज्ञान रूपी रात्रि का प्रादुर्भाव हुआ था जिसने अज्ञान, अन्धविश्वासों, मिथ्या सामाजिक परम्पराओं तथा अविद्या को जन्म दिया। आज भी अधिकांश रूप में यही स्थिति देश देशान्तर में जारी है। देश देशान्तर में वेदों की शिक्षाओं से रहित मत-मतान्तर प्रचलित हैं जिनसे ईश्वर के सत्यस्वरूप सहित सत्य विद्याओं का ज्ञान नहीं होता। किसी को न तो ईश्वर का साक्षात्कार ही होता है और न ही अकर्तव्यों का ज्ञान होता है जिस कारण से संसार में अकर्तव्यों को करने से अशान्ति व दुःखों का विस्तार हो रहा है। वैदिक धर्म प्राणियों पर दया, अहिंसा तथा करूणा पर आधारित है। इसका वर्तमान संसार में लोप ही प्रतीत होता है। इस कारण भी संसार में अनेक प्रकार से हिंसा का वातावरण देखा जाता है। लोग सत्य धर्म का पालन न कर अपने प्रयोजन की सिद्धि में हठ, दुराग्रह एवं अविद्यादि का प्रयोग करते हैं। जिससे मनुष्यों का जीवन दुःख व चिन्ताओं से युक्त होता है। इनका एक ही उपाय है कि वह महर्षि दयानन्द के विचारों का मनन करें और उनकी ग्राह्य शिक्षाओं को अपनायें जिससे मानव जाति का समुचित उत्थान होकर सभी मनुष्य जीवन के लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति में अग्रसर होकर उसे प्राप्त हो सकें।

ऋषि दयानन्द ने इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिये सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ की रचना की थी। इस ग्रन्थ के प्रथम दस अध्यायों में वेदों की मान्यताओं व सिद्धान्तों का प्रकाश व मण्डन किया गया है। सभी मतों के लोग इसे पढ़कर इसकी सत्यता की परीक्षा करते हुए इसके लाभ व हानि पर विचार कर सकते हैं। इस ग्रन्थ के उत्तरार्ध में संसार में प्रचलित प्रायः सभी मतों के सत्यासत्य की परीक्षा की गई है। इसे भी सभी लोग पढ़कर व विचार कर सत्य का ग्रहण व असत्य का त्याग करते हुए संसार को सुख व शान्ति को प्राप्त कराने की दिशा में अग्रसर कर सकते हैं। यही ऋषि दयानन्द का भी उद्देश्य विदित होता है। वर्तमान में कोई भी मत व सम्प्रदाय इस आवश्यकता की पूर्ति नहीं कर रहा है। ऐसा देखने में आता है कोई भी मत दूसरे मतों की अच्छी बातों का भी न तो ग्रहण करता है और न ही अपनी अतार्किक व अहितकर बातों का विचार कर उनका त्याग करने का प्रयत्न करता है। इस दृष्टि से मनुष्य परमात्मा प्रदत्त अपने मन, बुद्धि व आत्मा का सदुपयोग न कर उसके कुछ विपरीत आचरण करता हुआ दिखाई देता है। शतप्रतिशत लोग ऐसा नहीं करते परन्तु अधिकांश लोग ऐसा करते हुए दीखते हैं।

सभी मतों के लोग अपने आचार्यों की शिक्षाओं पर निर्भर रहते हैं। वह सत्य व असत्य का विचार प्रायः नहीं करते। वह अपने आचार्यों की प्रत्येक बात का विश्वास करते हैं। आचार्यगण अपने हित व अहित के कारण ही बातों को देखते व अपनाते हैं। इस कारण सत्य ज्ञान से युक्त ईश्वरीय ज्ञान वेदों के साथ न्याय नहीं हो पा रहा है। विचार करने पर इसका एक कारण यह भी लगता है कि आर्यसमाज को जिस प्रकार जन जन तक वेदों का ज्ञान पहुंचाना था, उसमें भी वह सफल नहीं हुआ। वर्तमान में आर्यसमाज द्वारा किया जाने वाला वेदों का प्रचार आर्यसमाज मन्दिरों में अपने कुछ नाम मात्र के सदस्यों के मध्य सिमट कर रह गया है। हमारे विद्वान व प्रचारक आर्यसमाज मन्दिर के साप्ताहिक सत्संगों व उत्सवों में जाकर प्रवचन व भजनों आदि के द्वारा प्रचार करते हैं। जन-जन तक हमारी बातें पहुंचती ही नहीं है जबकि अन्य मतों के लोग अपने अनुयायियों द्वारा जन-जन तक पहुंचने की हर प्रकार से चेष्टायें करते हैं और उन्हें येन केन प्रकारेण अपने मत में मिलाने का प्रयत्न करते हैं। कुछ मतों की संख्या वृद्धि व आर्यों व हिन्दुओं की संख्या में कमी को भी इस सन्दर्भ में देखा समझा जा सकता है। आर्यसमाज के सुधी विद्वानों व शुभचिन्तकों को मत-मतान्तरों के प्रचार से प्रेरणा लेकर स्वयं भी वेदों का जन-जन में प्रचार करने की योजना बनानी चाहिये। यदि ऐसा न हुआ तो आने वाले समय में देश व आर्य हिन्दू जाति के लिये इस उपेक्षा के परिणाम गम्भीर व हानिकारक हो सकते हैं। मनुष्य व संगठनों का कर्तंव्य होता है कि अपने कर्मों पर विचार करें और उन्हें प्रभावशाली बनाये जिससे अभीष्ट लाभों की प्राप्ति हो सके। इसके लिये हमें सुसंगठित होना होगा और योग्य व निष्पक्ष अधिकारियों को अधिकार प्रदान कराने होंगे, तभी हम अभीष्ट मार्ग का अनुगमन कर अपने उद्देश्य में सफल हो सकते हैं।

ईश्वर की व्यवस्था पर विचार करते हैं तो वह हमें सत्कर्मों का प्रेरक और कर्मानुसार जीवों को सुख व दुःख देने वाला विधाता सिद्ध होता है। वेद परमात्मा का विधान है जिसमें मनुष्य के कर्तव्यों व अकर्तव्यों का ज्ञान कराया गया है। जो मनुष्य वेदाध्ययन नहीं करता उसे अपने कर्तव्यों व अकर्तव्यों ज्ञान भी नहीं होता। ऐसी स्थिति में मनुष्य से अवैदिक कर्मों का हो जाना सम्भव होता है जिसका परिणाम ईश्वरीय दण्ड विधान के अनुसार दुःख होता है। इस कारण बुद्धि व वाणी प्राप्त सभी मनुष्यों का कर्तव्य हैं कि ऋषि के बनाये हुए वेदानुकूल सत्य ग्रन्थों वा शास्त्रों का अध्ययन करें और उनकी सत्य शिक्षाओं का आचरण, पालन व प्रचार करें। यदि हमने अपना कोई भी कर्म ईश्वर की आज्ञा के विपरीत किया तो हम दण्ड व दुःख के भागी अवश्य होंगे। एक स्कूल के अध्यापक का व परीक्षक का उदाहरण भी लिया जा सकता है। सब बच्चे स्कूल में प्रवेश लेने व अध्ययन करने में स्वतन्त्र होते हैं। जो स्कूल में प्रवेश लेकर परिश्रमपूर्वक अध्ययन करते हैं उनको ही ज्ञान की प्राप्ति होते है। परीक्षा में उन्हें पूछे गये प्रश्नों के उत्तर अपने ज्ञान के अनुसार लिखने व देने की स्वतन्त्रता होती है। जो छात्र प्रश्नों के ठीक उत्तर देगा वह उत्तीर्ण होता है तथा जो नहीं देता वह फेल हो जाता है। परीक्षा के समय परीक्षक व अध्यापक अपने विद्यार्थियों को सही व गलत का ज्ञान नहीं कराते। एक अध्यापक अपने ही शिष्य को जो परीक्षा में प्रश्न का ठीक उत्तर नहीं देते, उन्हें फेल कर देता है। कुछ अनुतीर्ण विद्यार्थियों को स्कूल की प्रतिष्ठा को देखते हुए प्रवेश भी नहीं दिया जाता। ऐसा न्याय का पालन करने वाले अध्यापक व शिक्षक करते हैं। ईश्वर का विधान भी तर्क एवं युक्तियों पर आधारित है। परमात्मा भी अपने ज्ञान वेद का अध्ययन न करने वाले तथा उसके अनुसार आचरण न करने वाले लोगों को उनकी योग्यता व अयोग्यता के अनुसार उत्तीर्ण व अनुत्तीर्ण तथा सुख व दुःख रूपी पुरस्कार व दण्ड देता है। हमें व संसार के सब लोगों को इस उदाहरण में निहित शिक्षा को जानकर उसके अनुसार व्यवहार करना चाहिये।

वेदों के अध्ययन व अध्यापन के मनुष्य जाति के लिए अनेक लाभ हैं। संसार में एक ही परमात्मा है जो सृष्टिकर्ता, मनुष्यादि प्राणियों को जन्म व सुख आदि देने वाला तथा सभी सभी स्त्री व पुरुषों के कर्मों का न्याय करने वाला है। वेद ही ईश्वर का ज्ञान है इस कारण वेद ही सत्य व असत्य का निर्णय करने में परम प्रमाण हैं। इस कारण सभी मनुष्यों को अपने अपने विचारों को वेदानुकूल बनाकर सत्याचरण का पालन करते हुए ही अपने जीवन को उन्नति व सुख के पथ पर अग्रसर करना चाहिये। यदि ऐसा करेंगे तो सब मनुष्यों का वर्तमान जन्म सुखों से युक्त होने के साथ परजन्म भी सुखी व उन्नति को प्राप्त होगा। यदि इसका पालन न कर मत-मतानतरों की वेदविरुद्ध शिक्षाओं में लगे रहेंगे तो हमारा परजन्म उन्नति के स्थान पर एक फेल विद्यार्थी के समान दुःखों से पूरित हो सकता है जैसा कि स्कूली शिक्षा में ठीक से अध्ययन न करने तथा प्रश्नों के सही उत्तर न देने वालों के साथ होता है। ऐसे फेल विद्यार्थियों का भविष्य भी सुखमय न होकर दुःखमय ही होता है। हमें वेदों की उपेक्षा नहीं करनी चाहिये। वेदों के सत्य एवं उपयोगी अर्थों को जानकर उनसे लाभ उठाना चाहिये और विश्व में एक सत्य मत की स्थापना में सहयोग देना चाहिये जिससे विश्व में शान्ति, स्वर्ग व रामराज्य जैसा वातावरण हो।

-मनमोहन कुमार आर्य

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