भुवनेश्वरी शक्तिपीठ गुजरात के गोंडल में स्थित है।
पुत्र प्राप्ति हेतु विशेष फलप्रदा
भगवती भुवनेश्वरी की उपासना पुत्र प्राप्ति हेतु विशेष फलप्रदा है। रुद्रयामल में इनका कवच, नीलसरस्वती तन्त्र में हृदय तथा महातन्त्रार्णवमें सहस्त्रनाम संकलित है।
देवी भागवत में वर्णित मणिद्वीप की अधिष्ठात्री देवी हल्लेखा ( ह्रीं ) मन्त्र की स्वरूपा शक्ति और सृष्टिक्रम में महालक्ष्मीस्वरूपा – आदिशक्ति भगवती भुवनेश्वरी भगवान् शिव के समस्त लीला – विलासकी सहचरी हैं। जगदम्बा भुवनेश्वरीका स्वरूप सौम्य और अंगकान्ति अरुण है। भक्तों को अभय और समस्त सिद्धियाँ प्रदान करना इनका स्वाभाविक गुण है। दशमहाविद्याओं में ये पाँचवें स्थान पर परिगणित हैं।
प्रकृति का दूसरा नाम ही भुवनेश्वरी
देवीपुराण के कहा गया है कि मूल प्रकृति का दूसरा नाम ही भुवनेश्वरी है। ईश्वर रात्रि में जब ईश्वर के जगद्रूप व्यवहार का लोप हो जाता है, उस समय केवल ब्रह्म अपनी अव्यक्त प्रकृति के साथ शेष रहता है, तब ईश्वररात्रिकी अधिष्ठात्री देवी भुवनेश्वरी कहलाती हैं। अंकुश और पाश इनके मुख्य आयुध हैं। अंकुश नियन्त्रणका प्रतीक है और पाश राग अथवा आसक्तिका प्रतीक है। इस तरह सर्वरूपा मूल प्रकृति ही भुवनेश्वरी हैं, जो विश्व को वमन करने के कारण वमा, शिवमयी होने से ज्येष्ठा और कर्म – नियन्त्रण, फलदान और जीवोंको दण्डित करने के कारण रौद्री कही जाती हैं।
भगवान शिव का वाम भाग ही भुवनेश्वरी कहलाता है। भुवनेश्वरी के संग से ही भुवनेश्वर सदाशिव को सर्वेश होने की योग्यता प्राप्त होती है।
सम्पूर्ण महाविद्याएं भगवती भुवनेश्वरी की सेवा में सदा संलग्न रहती हैं
महानिर्वाणतन्त्र के अनुसार सम्पूर्ण महाविद्याएं भगवती भुवनेश्वरी की सेवा में सदा संलग्न रहती हैं। सात करोड़ महामन्त्र इनकी सदा आराधना करते हैं। दशमहाविद्याएँ ही दस सोपान हैं। काली तत्व से निर्गत होकर कमला तत्त्व तक की दस स्थितियाँ हैं , जिनसे अव्यक्त भुवनेश्वरी व्यक्त होकर ब्रह्माण्ड रूप धारण कर सकती हैं तथा प्रलय में कमला से अर्थात व्यक्त जगत से क्रमशः लय होकर काली रूप में मूल प्रकृति बन जाती है, इसलिये इन्हें कालकी जन्मदात्री भी कहा जाता है। इस तरह बृहन्नीलतन्त्रकी यह धारणा पुराणों के विवरणों से भी पुष्ट होती है कि प्रकारान्तर से काली और भुवनेशी दोनों में अभेद है।
अव्यक्त प्रकृति भुवनेश्वरी ही रक्तवर्णा काली हैं
अव्यक्त प्रकृति भुवनेश्वरी ही रक्तवर्णा काली हैं। देवीभागवत के अनुसार दुर्गम नामक दैत्यके अत्याचार से सन्तप्त होकर देवताओं और ब्राह्मणों ने हिमालयपर सर्वकारणस्वरूपा भगवती भुवनेश्वरी की ही आराधना की थी। उनकी आराधनासे प्रसन्न होकर भगवती भुवनेश्वरी तत्काल प्रकट हो गयीं। वे अपने हाथोंमें बाण, कमल पुष्प और शाक मूल लिये हुए थीं। उन्होंने अपने नेत्रों से अश्रुजल की सहस्त्रों धाराएँ प्रकट की। इस जल से भूमण्डल के सभी प्राणी तृप्त हो गये। समुद्रों और सरिताओं में अगाध जल भर गया और समस्त औषधियाँ सिंच गयी। अपने हाथ में लिये गये शाकों और फल – मूलसे प्राणियोंका पोषण करनेके कारण भगवती भुवनेश्वरी ही ‘ शताक्षी ‘ और शाकम्भरी ‘ नाम से विख्यात हुई । इन्होंने ही दुर्गमासुर को युद्ध में मारकर उसके द्वारा अपहत वेदोंको देवताओंको पुनः सौंपा था। उसके बाद भगवती भुवनेश्वरी का एक नाम दुर्गा प्रसिद्ध हुआ।
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