“मैं तेरी स्तुति करूंगा”

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ओ३म्

“मैं तेरी स्तुति करूंगा”

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स्तविष्यामि त्वामहं, विश्वस्यामृत भोजन।
अग्ने त्रातारममृतं मियेध्य, यजिष्ठं हव्यवाहन।।
ऋग्वेद 1.44.5

ऋषिः प्रस्कण्वः काण्वः। देवता अग्निः। छन्दः विराट् पथ्या बृहती।

(अमृत) हे अमर! हे सदामुक्त! (विश्वस्य भोजन) हे विश्व के भोजन एवं पालक! (मियेध्य) हे दुःखों के प्रक्षेप्ता! (हव्यवाहन) हे प्राप्तव्य द्रव्यों को प्राप्त करानेवाले! (अग्ने) हे अग्रणी तेजोमय परमात्मन्! (त्रातारं) त्राणकर्ता, (अमृतं) पीयूषतुल्य! (यजिष्ठं) सर्वाधिक यज्ञकत्र्ता (त्वां) तुझे (अहं) मैं (स्तविष्यामि) स्तुति का विषय बनाऊंगा।

हे मेरे अग्रनेता तेजःस्वरूप परमेश्वर! मैं तुम्हारी स्तुति करूंगा, तुम्हारे गुणों का कीर्तिन करूंगा, तुम्हारी आराधना करूंगा। तुम्हारी स्तुति मैं तुम्हारे भले के लिए नहीं, प्रत्युत अपने कल्याण के लिए करना चाहता हूं। कहते हैं कि भगवान् भक्त की स्तुति से रीझते हैं और उस पर सब-कुछ न्यौछावर कर देते हैं। आज मैं भी इसका परीक्षण करूंगा।

हे भगवन्! तुम ‘अमृत’ हो, अमर हो, सदामुक्त हो। अमर तो मेरा आत्मा भी है, पर मुझमें और तुममें बहुत अन्तर है। मेरा आत्मा अमर होता हुआ भी जन्म-मरण के बन्धन में पड़ता है, पर तुम सदा इस बन्धन से छूटे हुए हो। तुम विश्व के ‘भोजन’ हो। सन्तजनों ने कहा है कि वे भौतिक भोजन के बिना कुछ समय रह भी सकते हैं, किन्तु तुम्हारी भक्ति के भोजन बिना नहीं रह सकते। साथ ही तुम विश्व-पालक होने से भी विश्व के ‘भोजन’ कहलाते हो। तुम ‘मियेध्य’ हो, दुःखियों के दुःख को प्रक्षिप्त करनेवाले हो। बड़े-से-बड़े दुःख को उनके समीप से तुम ऐसे प्रक्षिप्त कर देते हो, जैसे वायु तिनके को उड़ा देता है। तुम ‘हव्यवाहन’ हो, समस्त प्राप्तव्य पदार्थ हमें प्राप्त करानेवाले हो। तुम ‘त्राता’ हो, विपत्तियों से त्राण करनेवाले हो। वेदमन्त्र द्वितीय बार पुनः तुम्हें ‘अमृत’ कह रहा है, क्योंकि तुम भक्त के लिए पीयूष-तुल्य हो, सुधा-रस हो। तुम ‘यजिष्ठ’ हो, सबसे बड़े यज्ञकर्ता हो, क्योंकि तुम अखिल ब्रह्माण्ड के संचालनरूप यज्ञ को कर रहे हो। हम मानव तो छोटे-छोटे यज्ञों का ही आयोजन करते हैं और उन्हें भी कठिनाई से ही निर्विघ्न पूर्ण कर पाते हैं। पर तुम सकल विश्व के उत्पादन और धारणरूप विशाल यज्ञ को अनायास निष्पन्न कर रहे हो।

हे जगदीश्वर! मैंने केवल तुम्हारी स्तुति की है, याचना कुछ नहीं की। यदि तुम मुझ पर प्रसन्न हो और वर मांगने को कहते ही हो, तो तुम यही वरदान दो कि मुझे भी अपने सदृश विश्वपालन, विश्वत्राता, दुःखहर्ता, यशःशरीर से अमर, यज्ञकर्ता और अव्यवाहन बना दो।

(आचार्य डा0 रामनाथ वेदालंकार की पुस्तक वेद-मंजरी से साभार प्रस्तुत)

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