श्वासों की गति में छिपा है कार्यों की सफलता का राज

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स्वरोदय क्या है, आप जानते हैं या नहीं, हम आपको आज स्वरोदय के बारे में ही बताने जा रहे हैं। स्वरोदय होता है नाकों में सांसों का चलना। स्वरोदय के द्बारा भी हम कार्य की सफलता और शकुन का सहज ही अनुमान लगा सकते हैं, धर्म शास्त्रों में इसके बारे में विस्तार से बताया गया है। हर स्थिति की सूचना मनुष्य को श्वास की गति से पता चल सकती है। इस ज्ञान की प्राप्ति की मनुष्य सर्वज्ञ हो जाता है, उसे सहजता से शुभता का पता चल जाता है। एक बात और महत्वपूर्ण है, जो इस विद्या की महत्ता का बढ़ा देती है। कई बार मंत्रादि की सिद्धि में सभी ठोस उपाय करने पर भी हमे कई बार गलत स्वर चलने से सिद्धि नहीं मिलती है। यह स्वरोदय सम्पूर्ण शास्त्रों में सर्वश्रेष्ठ ज्ञान है।

सम्बन्धित श्लोक है-
इदं स्वरोदयं शास्त्रं सर्वशास्त्रोत्तमम्।

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भगवान शंकर ने भगवती शिवा के प्रश्नों के उत्तर में एक समय में कहा था-

स्वरज्ञानात्परं गुर्ह्म सवरज्ञानात्परं धनम्।
स्वरज्ञानात्परं ज्ञानां न वा दृष्टं न व श्रुतम्।।

अर्थ- स्वर ज्ञान से बढ़कर कोई गुप्त विद्या, स्वर ज्ञान से ही अधिक धन आदि, स्वर ज्ञान से भी बढ़कर कोई ज्ञान न सुना, न देखा गया है।

आइये जानते हैं कि स्वर की पहचान कैसे करें

हम आम तौर पर सांस लेते है तो गौर नहीं करते है कि श्वास किस नाक से तेजी से ले रहे हैं। इस विद्या में इसी पर गौर किया जाता है। हमारी नाकों में दो छिद्र होते हैं। इन नाकों के छिद्रों में यदा-कदा ही साथ-साथ श्वास का प्रवाह होता है। अक्सर देखा गया है कि कभी नाक के दाहिने तो कभी बायें छिद्र से श्वास का प्रवाह होता है। अभ्यास से इसकी पहचान करनी होती है। जब दोनों स्वर चल रहे हो तो इसे सुषुम्ना कहते हैं। दाहिने नासा छिद्र से श्वास चलते तो इसे पिंगला और बायीं ओर के नासिका छिद्र से श्वास चले तो इसको इड़ा कहते है। माना जाता है कि इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना जीव के प्राण के मार्ग पर स्थिर हैं। शुकुलन के लिए या किसी प्रश्न के उत्तर के लिए नाक से चल रहे श्वास को समझ कर कार्य करें तो उत्तम रहता है।

सुषुम्ना
क्या है सुषुम्ना, आइये हम आपको इसके बारे में बताते हैं, प्राणी के शरीर में स्थित सुषुम्ना सब कार्यों के लिए विपरीत रहता है और योग कारक नहीं है। इसके चलते समय विपरीत फल ही माना गया है। इसे लेकर एक बात जो अनुभव में आयी है, जिसे हम आपको बताना श्रेयस्कर समझ रहे है, वह यह है कि यदि सुषुम्ना स्वर के चलते समय यदि पूजा-पाठ किया जाए तो अधिक उत्तम रहता है।

ईश्वरे चिन्तिते कार्यं योगाभ्यासादि कर्म च।
अन्यत्तत्र न कर्तव्यं जय लाभ सुख्ौषिभि:।।

पिंगला
यह श्वास के चलते समय क्रूर कर्म की सिद्धि होती है। सम्भोग में सफलता मिलती है। मारण, मोहन, स्तम्भन, उच्चाटन आदि प्रयोग में सफलता प्राप्त होती है। नदी पार करें, दवा यानी चिकित्सा कार्य करायें, विद्या की शुरुआत, पशु की सवारी, योगाभ्यास, भूत-प्रेत, चुडैèल, यक्षिणी आदि की सिद्धि, शास्त्रों का अध्ययन, यात्रा, शिकार, भोजन, जुआ ख्ोलना आदि जैसे क्रूर कार्य और विभिन्न छोटे-बड़े कार्य पिंगला श्वास के चलते सदैव सिद्ध होते हैं।

इड़ा
ईड़ा श्वास यानी नासिका का बायां छिद्र से श्वास चलना। जब यह श्वास चल रहा हो तो गृह प्रवेश, बीजारोपण,स्त्री »ृंगार, विष चिकित्सा, गुरु का पूजन, नाटक करना, मित्रता, व्यापार, अन्न और औषधि संग्रह, औषधि निर्माण, शांति जनक कार्य, पौष्टिक कर्म, देव या देवी की प्राण प्रतिष्ठा, दान, विवाह, वस्त्र, आभूषण, पूजन, तपस्या, वस्तुओं का संग्रह करने, धर्म का अनुष्ठान, यज्ञोपवीत का धारण, पशु खरीदना, मालिक को बुलाना, वेद आदि का अध्ययन, काल का ज्ञान, घर में सवारी लाना, धन का संग्रह करना, उपकार करना, कठिन रोगांे की चिकित्सा, तिलक लगाना, जमीन खरीदना, गाना बजाना और नृत्य करना आदि शुभ रहता है।

तत्व
स्वरोदय की साधाना में तत्व की पहचान आवश्यक है, क्योंकि स्वरोदय और तत्व एक दूसरे के सहयोगी है।
तत्व ज्ञान मुख द्बारा- जब मुख का स्वाद मीठा-मीठा रहे तो पृथ्वी तत्व जानें।
– जब मुख का स्वाद चरपरा हो तो अग्नि तत्व जानें।
– जब मुख का स्वाद कसैला हो तो जल तत्व जानें।
– जब मुख का स्वाद खSा हो तो वायु तत्व जानें।
– जब मुख का स्वाद कड़वा हो तो आकाश तत्व जानें।
तत्व मात्र पांच होते हैं, इनकी महत्ता को कतई भी नकारा नहीं जा सकता है, इसलिए शकुन के लिए और स्वरोदय में प्रमाणित बात कहने के लिए तत्व ज्ञान विश्ोष सहायक होता है।

किस तत्व में कैसे कार्य होंगे सहायक

पृथ्वी तत्व

उपर किए गए उल्लेख के अनुसार जब पृथ्वी तत्व हो तो स्थिर कार्य करें।
जल तत्व

अगर जल तत्व का स्वाद मिले तो चर कार्य करेें।
आकाश तत्व

यह तत्व सिद्धि के लिए अक्सर उत्तम माना जाता है, इसलिए मारण, मोहन, उच्चाटन आदि का प्रयोग इस तत्व के समय में विश्ोष फलदायी होता है।
अग्नि तत्व

नाम से ही उग्रता झलकती हैं, इसलिए क्रूर कार्य ही इस तत्व के काल में किए जाएं।

तत्व सार जानिए 

स्कन्धद्बये स्थितों वाहिृर्नाभिमूले प्रभंजन:।
जानुदेश्ो क्षितिस्तोयं पादान्ते मस्तके नभ:।।

अर्थ- दोनों कंधों में अग्नि तत्व निवास करता है, नाभि में वायु तत्व, घुटनों में पृथ्वी तत्व, पांव में जल तत्व और सिर में आकाश तत्व निवास करता है।

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